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अटलान्टिक सिटी

अटलान्टिक सिटी (Atlantic City )
कल ही अटलान्टिक सिटी घूमने का प्रोग्राम बन गया था। 29 की सुबह आठ बजे बस कम्पनी- विडियो टूअर्स- के दफ़्तर पहुँचे। बीस मिनट इंतज़ार के बाद बस ने हमें लिया, उसके बाद रास्ते में जगह- जगह से लोगों को लेती हुई शहर के बाहर की ओर चल पड़ी। बस में कई तरह के यात्री थे, अंग्रेज़, अफ्रीकी- अमेरिकन, स्पैनिश व कुछ हम जैसे। बस ड्राइवर बड़ा हँसमुख था। माइक पर भी वही उद्घोषणा कर रहा था, कोई कंडक्टर नहीं था। करूणा ने बताया कि ड्राइवर ही सारा काम करते हैं। बस में पीछे टॉयलेट भी था। बस में एक बात गौर करने लायक थी, उसमें दो ही बच्चे थे, बाकी यात्री मध्य आयु के या फिर बूढ़े थे। स्पैनिश लोगों का एक बड़ा ग्रुप था जिसमें हर आयु के लोग थे । वे आपस में ज़ोर- ज़ोर से बातें कर रहे थे और ख़ूब खिलखिला रहे थे। बड़े मस्त और खिलन्दड़े लग रहे थे। तीन घंटे का सफ़र था। वक्त काटने के लिये एक पिक्चर लगा दी गयी । मैं पिक्चर के साथ- साथ रास्ते में गुज़रने वाली चीज़ें भी देखती जा रही थी। बस मैनहैटन से गुज़र कर अटलान्टिक सिटी की ओर चल दी। सड़क के दोनों ओर सूखे खेत आ रहे थे, कभी- कभी कोई शहर आ जाता था। समुद्र का किनारा होने के कारण जगह- जगह पानी था।
बस के रास्ते को क्वीन्स से ब्रुक्लिन, फिर वेराज़ानो ब्रिज से स्टैन आईलैन्ड जाना था। -आऊटर ब्रिज- पार कर के- न्यू जरसी फिर अटलान्टिक सिटी। वहाँ तक पहुँचने में पौने चार घंटे लगे। दूर से ही बड़े- बड़े होटल और जुआघरों की इमारतें दिखाई देने लगीं। बस ने- सैन्ड्स कसीनो- छोड़ दिया। बस से उतर कर सैन्ड्स के ऊपरी हिस्से में कॉफ़ी पी तथा घर से लाया नाश्ता किया, मठरियाँ बहुत स्वादिष्ट थीं। दिन खुला होने के कारण पहले समुद्र के किनारे घूमने का निश्चय किया। धूप चटक थी, मौसम गर्म था। ठंडक में सिहरन नहीं थी। सामने समुद्र का अंतहीन फैलाव था। तट पर ढेरों कसीनो और आर्केड। कसीनों में सैकड़ों लोग जुआ खेल रहे थे। यहाँ वे अपना भाग्य आजमाते हैं और अपना मनोरंजन करते हैं। समुद्र के किनारे हम सीधे हाथ की ओर चल पड़े। चलने वाली जगह लकड़ी के पट्टों से बनाई गयी थी, यह बोर्ड वॉक कहलाती है। समुद्र की मिट्टी कसीनों में भीतर न जाये इसलिये इसे बनाया जाता है। यह बोर्ड वॉक रेलिंग से घिरा होता है, बहुत सारे लोग इस पर एक साथ घूम सकते हैं। बोर्ड वॉक पर कुछ- कुछ दूरी पर जेटी थीं, जिन्हें प्रसिद्ध व्यक्तियों के नाम से जाना जाता था। वहाँ मार्टिन लूथर किंग का भी नाम था। एक जेटी पर फ़ोटो खिंचवायीं।
कसीनो की कुछ इमारतें बहुत बड़ी- बड़ी थीं, कुछ छोटी। छोटी- छोटी दुकानों में तरह- तरह के आकर्षक उपहार सजे हुये थे। सील मछलियों के कलात्मक नमूने, कपड़े, खिलौने व ढेरों सजावटी सामान थे। बड़े- बड़े कलाकारों के प्रतिरूप भी थे, जो चाबी भरने पर अपनी- अपनी कलाकारी दिखाने लगते थे। उनमें – लिटिल रिचर्ड्स नाम का गायक कलाकार भी रखा था। दुकानों के बाहर ताँबे की सुन्दर मूर्तियाँ सजायी गयी थीं। वहाँ- ट्रम्प ताजमहल नाम का बहुत बड़ा कसीनो था, जिसे ताजमहल के शिल्प के आधार पर बनाने का प्रयास किया गया था। वैसे ही गुम्बद, बुर्जें बनायी थीं, रंग भी अधिकतर सफ़ेद ही था, पर सजावट के हिसाब से सुनहरे, लाल व नीले रंग भी थे। इसके आगे- कस्बाह- कसीनो था और इन दोनों के मालिक डोनाल्ड ट्रम्प हैं जो न्यूयार्क के बहुत बड़े व्यापारी हैं। हम पीछे लौट पड़े। बायें हाथ को ख़ाली प्लेटफ़ार्म पर नाव बनायी गयी थी, बैंचे थीं। ढेर सी फास्ट फ़ूड की दुकानें थीं। सर्दी के मौसम में टूरिस्ट कम थे, तो अधिकतर बंद पड़ी थीं। समुद्री चिड़ियाँ सीगल की कई किस्में मौजूद थीं और वातावरण को सजीव बना रही थीं। सीधे हाथ की तरफ़ भी ढेरों कसीनों थे, जिनको लाउडिस्पीकर द्वारा प्रचारित किया जा रहा था। एक गिफ़्ट शॉप सरदार जी की थी।
-रिप्लेज़- का -बिलीव इट और नॉट- बहुत मज़ेदार था। पूरी इमारत ऐसी बनायी गयी थी मानो आगे की ओर गिर रही थी, इसे -क्रूकेड शैली की बिल्डिंग कहते हैं। खिड़कियों के शीशों में क्रमशः गिरता हुआ आदमी, गिरे हुये आदमी की टाँगें, पिस्तौल लिये हैटवाला आदि की काली छाया पेंटिंग थीं। सामने से भीतर झाँकने पर क्रेन पर उतरता- चढ़ता आदमी एकदम वास्तविक लग रहा था। हवा में टँगा नल था, जिससे लगातार पानी गिर रहा था। यह कुछ वैसा ही प्रदर्शन था जैसा कलकत्ता के साइंस म्यूज़ियम में पानी बहता नल था। किनारे से लगी एक बड़ी सी शुतुरमुर्ग चिड़िया का बड़ा ढाँचा था। अजीबोगरीब सजावट के कारण यह कसीनो सबसे अलग लग रहा था। सामने ही एक आर्केड था जहाँ पर बच्चों के खेल थे। नलिन ने कार ड्राइविंग का खेल खेला। आर्केड बच्चों के मनोरंजन के लिये होता है, जब कि कसीनो बड़ों के मनोरंजन का। कसीनो में इक्कीस साल का होने के बाद ही खेल सकते हैं, वरना सरकार जेल भी भेज सकती है, फ़ाइन तो होता ही है।
समुद्र तट पर घूमते- घूमते बहुत थक गये थे। इसी टहलने के बीच मैं एक जेटी से अंदर समुद्र तक चली गयी। धूप में समुद्र का लहरें उछालता पानी गम्भीर नहीं था, क्षितिज दिखायी नहीं दे रहा था। बस पानी ही पानी नज़र आता था। सूरज की रोशनी में लहरों के आकर्षक स्वरूप झिलमिला रहे थे। दूर जाता एक जहाज़ सीनरी जैसा दृश्य उपस्थित कर रहा था। देर तक खड़ी लहरों का बनना- टूटना देखती रही। पानी छूने की इच्छा थी, पर कोई ढंग का किनारा नहीं मिला। बड़े- बड़े पत्थर थे जिनमें बड़ी झिरियाँ थीं और इन झिरियों में पानी तड़प कर आ रहा था। कितना भी नीचे झुकती पर पानी नहीं छू सकती थी। स्तर बहुत नीचा था और डरावना भी। दूर से ही मनोरम छटा को देख- निरख कर वापिस हो ली, रेत में धँसते पावों के साथ कुछ सीपियाँ बटोर लीं और किनारे तक आ गयी। सागर की ठंडी व ताज़ी हवा ने मन को तरोताज़ा बना दिया। -पपेट्स- में गर्मागर्म पीट्ज़ा खाया। बाहर सड़क पर यात्री घूम रहे थे। वहाँ गायक कलाकार अपने वाद्यों पर गा रहे थे। बेंत के टैम्पो स्टैंड वाले यात्रियों को तट पर घुमा रहे थे। सैलानियों से सागर- तट खूब गुलज़ार था। सीगल, भूरी बत्तखें, रेवान कौआ रेत में खाने की चीज़ें ढूँढ रहे थे। चार बज चुके थे और छः बजे वापसी के लिये बस में चले जाना था । अब केवल दो घंटे का समय शेष ऱहा था।
सैंड्स कसीनो को देखने का चाव था, अतः करुणा नलिन के साथ बाहर क़ॉरीडोर में रुक गयी और मैं व विशेष भीतर चले गये। वहाँ स्लॉट मशीनों पर लोग बड़ी- बड़ी राशि के साथ जुआ खेल रहे थे। अंदर तीन पत्ती का पोकर खेला जा रहा था। मेज़ों पर अधिकतर बूढ़े- पुरुष और स्त्रियाँ थे, उनके हाव- भाव से ऐसा लग रहा था कि वे यहाँ के नियमित आने वाले हों । पता नहीं कि सच क्या रहा होगा। उसी हॉल में एक तरफ़ को रूलेट खेला जा रहा था। रूलेट खेल फ़िल्मों में बहुत देखा था जिसे हीरो या विलेन खेलते दिखाये जाते थे। यहाँ भी यह तन्मयता से खेल जा रहा था । लोग धूम्रपान भी कर रहे थे, जबकि बाहर वाले भाग में सिगरेट पीना मना था। हमने स्लॉट मशीन पर थोड़ा सा खेल कर अपना शौक पूरा कर लिय़ा। अकस्मात छनर- छनर की आवाज़ गूँज उठी । कोने में बैठी महिला का बम्पर प्राइज़ निकला था। सिक्के अनवरत गिर रहे थे। न जाने कितना पैसा गिरा होगा। पूछने पर उसने बताया कि वह सुबह से खेल रही थी और रोज़ यहाँ खेलने आती है। यह धुन थी या लत। बाहर आ कर विशेष को छोड़ा, फिर मैं करूणा के साथ एक बार और अन्दर चली गयी। थोड़ा- बहुत खेल कर बाहर आ गये। छः बजे हम बस में आ कर अपनी- अपनी सीटों पर बैठ गये। रात हो चुकी थी और सब थक गये थे। सब चुप थे, पर स्पैनिश लोगों के ठहाके अभी भी जवान थे। बात– बात पर उनका खिलखिलाना वातावरण को जीवंत बना रहा था। लग रहा था कि बातें मटकाते केवल वे ही हों बस में । बस सुबह वाले रास्तों पर चल पड़ी। कोई शहर आते ही क्रिस्मस की रोशनी जगमगा उठती । एक बगीचा तो बहुत सुंदर रोशनियों से सजा हुआ था। मैनहैटन आ गया । कई जगमगाते पुलों को पार कर न्यूयार्क की तरफ़ बढ़ गये। स्टैच्यू ऑफ़ लिबर्टी धुँधली आकृति में दिखायी दी। एम्पायर बिल्डिंग, क्राइस्लर बिल्डिंग भी देखीं। शहर आने पर लोग जिस क्रम में चढ़े थे उसी क्रम में उतर गये। हमारी जगह आने पर उतर कर अपनी कार में बैठे और घर आ गये। एक थकान भरा, पर नये अनुभव संजोये आनन्दपूर्ण दिन का पटाक्षेप हो गया। अब तो बिस्तर था और हमराह सपने। रज़ाई में गुड़ी- मुड़ी हो आँखें मूँद लीं।
30 तारीख को भूपेश व मीरा के साथ बाज़ार गयी। बैंक और बाज़ार के काम किये।- जैक्सन हाइट्स- वाला इलाका घूमा। यह भारतीय, पाकिस्तानी व बाँग्लादेशी इलाका था। तमाम तरह की हिन्दू और मुस्लिम नामों की दुकानें थीं। सलवार– कमीज़ के परिधान दिखायी दिये। काफ़ी संख्या में देसी आबादी मौजूद थी, माहौल भारत सरीखा लग रहा था। पाकिस्तानी दुकान से समोसे खरीदे। लायब्रेरी देखी। आते समय पोस्ट ऑफ़िस भी देखा। आज हमारी माँ का अवसान दिवस था, हम सब भाई- बहनों ने उन्हें याद किया। रात को सबने साथ- साथ खाना खाया। रात के बारह बजे टीवी पर टाइम स्क्वायर में क्रिस्टल बॉल गिरने का प्रोग्राम देखा। एक – दूसरे के गले मिल कर नव वर्ष की मंगल कामनाएँ दीं।
विशू महिमा को विवाह की वर्षगाँठ तथा शिल्पी को जन्मदिन की बधाई दी। अपनी सखी युट्टा ऑस्टिन को नये वर्ष का कार्ड भेजा। दिसम्बर बीत गया था, जनवरी की पहली तारीख़ बीतने को थी। जिस तरह सौ का नोट जब तक न खुले हाथ में दिखाई देता है, उसी तरह जब तक दिसम्बर की तारीख़ें चल रही थीं, तब तक लग रहा था कि न्यूयार्क में ठहरने के काफ़ी दिन हैं, परन्तु अब लग रहा था कि चिल्लर की तरह बाकी दिन भी हवा हो जायेंगे। देखते- देखते पन्द्रह तारीख़ आ जायेगी और मैं कनाडा के लिये रवाना हो जाऊँगी। न जाने फिर कब आना हो, हो कि न हो, जीवन को किसने देखा है। सात समन्दर पार करके भाइयों के पास रहना एक अनजाना सा सपना लगता है अब तलक। ईश्वर का लाख- लाख धन्यवाद ऐसे अवसर के लिये। निशू की भी आभारी हूँ कि उसकी इच्छा के चलते मैं यहाँ तक पहुँच पायी। दिन नामालूम से उड़े जा रहे हैं, कब सुबह होती है कब शाम, सच ही दिन जाते देर नहीं लगती। यही शाश्वत नियम है।

आभा सिंहचैप्टर

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